
दसवीं मुहर्रम पर रसूलपुर के तमाम मोहल्ले गमजदा रहे, हर कोई गमे हुसैन में शरीक हुआ। ताजियों पर अकीदत के फूल चढ़ाकर मन्नत, मुरादें मांगी गईं। कोरोना की वजह से इस बार जुलूस तो नहीं निकले लेकिन अलम, मेहंदी, झूला और ताजिये के फूल करबला लेकर दफनाए गए। इमामबाड़े से लेकर करबला तक ‘या अली, या हुसैन’ की सदाएं गूंजतीं रहीं। रवायत के मुताबिक पैगंबरे इस्लाम हजरत मुहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों की करबला में शहादत की याद में अकीदतमंद नम आंखों से फूलों को करबला में दफनाने के बाद शहीदे आजम की यादें लेकर लौटे। एक बार फिर उन्होंने सब्र और इंसानियत का सबक सीखा कि उसूलों पर चलकर जुल्म-सितम का डटकर मुकाबला करें।